लिखावट के मंच पर कविता लखनऊ का आयोजन’
कोई नाव खतरे में नहीं/पूरी नदी खतरे में है
अवन्तिका सिंह, कल्पना पंत, उषा राय और विमल किशोर का कविता पाठ
तीर्थ चेतना न्यूज
लखनऊ। कोई नाव खतरे में नहीं/ पूरी नदी खतरे में है।साहित्यिक संस्था लिखावट के बैनर तले कविता लखनऊ की दूसरी कड़ी के ऑनलाइन आयोजन पर कवियों ने बदलते परिवेश और तौर तरीकों को काव्य पाठ के माध्यम से शानदार तरीके से प्रस्तुत किया।
ऑनलाइन आयोजन में अवंतिका सिंह, कल्पना पंत, उषा राय और विमल किशोर। लिखावट की ओर से कवि और गद्यकार मिथिलेश श्रीवास्तव ने सभी का स्वागत किया और कहा कि इन रचनाकारों की जमीन भले ही स्थानीय हो लेकिन इनका परिप्रेक्ष्य व्यापक है। इनकी रचनाओं में अपने समय और समाज की धड़कनों को सुना जा सकता है। यहां प्रतिरोध की चेतना और बदलाव की इच्छा प्रबल है।
कार्यक्रम का आरंभ अवंतिका सिंह के कविता पाठ से हुआ। उन्होंने चार कविताएं सुनाईं । अपनी एक कविता में कहती हैं शिक्षक! ..क्यों ज़ोर देते हो कि हम बने बनाए पदचिन्हों पर चलें/..हमे किसी का प्रतिरूप बनने को मत कहो/रचने दो मानवता के मौलिक अर्थ..। उन्होंने स्त्री की तुलना नीली नदी से की जो बाहर से शांत दिखती है पर उसकी थाह पाना आसान नहीं – गहरी नीली नदी/ऊपर से शांत पर भीतर की संवेदनाओं से व्याकुल/नदी और स्त्री एक दूसरे के पर्याय ।
अवंतिका सिंह ने किसान जीवन की विडंबनाओं को व्यक्त करती कविता भी सुनाई जिसमें यह सच्चाई सामने आती है कि भीषण बारिश में किसान का सब कुछ तबाह हो जाता है और सरकार का बयान आता है कि ज्यादा नुकसान नहीं हुआ।
कल्पना पंत ने पितृ दिवस पर पिता से बातचीत से अपने पाठ की शुरुआत की जिसमें वह कहती हैं छतनार पेड़ की भाँति मेरे पिता/जिनसे मैं नित संवाद करती रहती हूँ /…कभी-कभी संवादहीनता की निराशा में दीखते हैं/वे अब कानों से कम सुनते हैं/फोन पर और कम/पिता अब मुझमें मुझसे बात करते हैं। कल्पना पंत का दृढ़ मत है कि रास्ता खुद बनाना होगा।
किसी देवता की उम्मीद बेकार है। वे कहती हैं श्हाहाकार को संगीत बनाकर/जीते जी जीवन का मर्सिया गाने वाले समय में/मुझे किसी देवता की दरकार नहीं है। और अजीब समय है/आकाश पर धूसर तितलियां उड़ रही हैं/और वे रंगों से खेल रहे हैं। उन्होंने श्पहाड़ों की छाती पर दीखते हैं घावश् को भी अपनी कविता में उकेरा।
उषा राय ने लिखावट के काव्य पाठ को अपनी प्रतिरोधी कविताओं से नई ऊंचाई प्रदान की। इस मौके पर दो छोटी और एक लंबी कविता सुनाई। मेडल चूमते हुए में संघर्षरत महिला खिलाड़ियों को संबोधित करते हुए कहती हैं ठहरा हुआ यौन शोषण का सवाल/अब आ लगा है नाव के साथ तुम्हारे/पतवार मत छोड़ना मेरी नाविक/चाहे जलजला ही क्यों ना आ जाए। उषा राय ने अपनी चर्चित कविता तेंदुआ का भी पाठ किया।
यह कविता छः खंडों में है जो राजसत्ता, धर्मसत्ता और पितृसत्ता के छल-छद्म, पाखंड और हिंस्र मनोवृति पर चोट करती है अब उसने की है शांति की बात/तो चाकू खंजर भाला त्रिशूल की बात चल निकली है/ज़ब ज़ब वह खतरों की बात उठाता है/तब समझ लेना चाहिए कि कोई नाव खतरे में नहीं/पूरी नदी खतरे में है।
विमल किशोर को कविता से उम्मीद है। वे कहती हैं श्कविता! तुम जीवन की उष्मा हो/.. संवेदनाओं की अभिव्यक्ति हो/.. तुम तो वह हो/ जिसके शब्दों के अग्निबाण से डर जाती है सत्ता/ उसी तरह जैसे फैज और कई कवियों से वह डर गई थी। इस अवसर पर विमल किशोर ने श्मजहबी सब्जी, एक मुट्ठी रेत, श्चाहत और सुंदर लड़कियां का पाठ किया।
इन कविताओं में जहां सांप्रदायिक विभाजन, स्त्री जीवन की विडंबना आदि सामने आती है, वहीं संघर्ष और बदलाव की भावना की अभिव्यक्ति है। वे कहती हैं देश की सुंदर लड़कियों/अब लड़नी होगी तुम्हें लंबी लड़ाई /तुम आगे बढ़ो /कई हाथ और कई कदम तुम्हारे साथ होंगे और आगे अपनी चाह को कुछ यूं व्यक्त करती हैं जीचन की सांध्य/और ये चाहत भरी हसरतें /… मैं उस आवाज का हिस्सा बनूं/ जो बदलाव के लिए /सदियों से प्रयासरत है/ मैं उम्मीद की वह चिंगारी बनूं/ जो सुलगता रहे होले-होले।
कार्यक्रम का संचालन कौशल किशोर ने किया। सभी रचनाकारों को धन्यवाद ज्ञापित करते हुए प्रशांत जैन (मुम्बई) ने कहा कि ये कविताएं समकालीन स्त्री स्वर को सामने लाती हैं। इनमें जहां विषय की विविधता है, वहीं इनके कहने का अपना तरीका है। उन्होंने कविता के प्रति समर्पण के लिए लिखावट और मिथिलेश श्रीवास्तव को भी धन्यवाद दिया। इस अवसर पर वरिष्ठ कवि विनोद कुमार श्रीवास्तव (मुंबई), पल्लवी मुखर्जी (छत्तीसगढ़), तस्वीर नक़वी, अलका पांडे, राजीव प्रकाश साहिर आदि श्रोता के रूप में उपस्थित थे।