डॉ. दलीप सिंह बिष्ट
हिमालय की स्थिर दिखने वाली चट्टानों की मोटी-मोटी परतों के भीतर बड़ी-बड़ी दरारें और भ्रंश है, जिनके संधिस्थलों में भूगर्भिक हलचल के कारण लगातार उथल-पुथल होती रहती है, जिसके कारण यहां निरन्तर भूकम्प के झटके आते रहते हैं। लेकिन इनको बढाने में बाह्य कारक सबसे अधिक जिम्मेदार हैं, क्योंकि पहले से नाजुक इन चट्टानों के सन्धिस्थल सड़क तथा बांध निर्माण कार्यों में हो रहे भारी विस्फोटों के कारण और भी अधिक जीर्ण-शीर्ण हो जाते है जो भूकम्प आदि के झटको को सहन नही कर पाते है और एक बड़ी त्रासदी का कारण बन जाते हैं।
ऐसा ही कुछ उत्तराखंड राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में दिख रहा है। यहां विकास को किए जा रहे विस्फोट बरबादी की पटकथा लिख रहे हैं। वनों का कटान, परिवहन सुविधाओं के विस्तार के लिए सड़कों का निर्माण, संचार एवं अन्य आधुनिक सुविधाओं के साथ-साथ आबादी में बेतहाशा वृद्धि ने स्वच्छ हिमालय के संरक्षण में कठिनाइयां पैदा कर दी है।
प्राकृतिक रूप से बहने वाली वेगवान नदियों की धारा को मोड़कर मनुष्य ने अपने विकास और उत्थान की अंधी दौड़ में प्राकृतिक नियमों के विरूद्ध जो कार्य किये है, उसी का नतीजा है कि कुछ वर्षों से प्रकृति में ऐसी घटनायें घट रही है जिनका शायद ही किसी को कभी आभास रहा हो। हिमालय की इस दुर्दशा को देखते हुए पर्यावरणविद्ों ने प्रतिवर्ष 9 सितम्बर को हिमालय दिवस मनाने का संकल्प लिया है जिसका मुख्य उद्देश्य हिमालय के सतत विकास, स्थिरता एवं पारिस्थितिकी संरक्षण को बनाये रखना है, जबकि पूरे वर्ष हिमालय को विभिन्न प्रकार से नुकसान पहुंचाने के बाद एक दिन प्रतिज्ञा लेने से हिमालय संरक्षित हो पायेगा यह एक महत्वपूर्ण प्रश्न है।
हिमालय से निकलनी वाली नदियां जीवन के लिए अमृततुल्य है जिन पर देश की बहुसख्यक आबादी का जीवन निर्भर करता है और उनकी रोजी-रोटी से भी जुड़ा हुआ है। हिमालय जलवायु एवं मौसम को नियंत्रित करने के साथ ही उत्तरी ध्रुव की ओर से आने वाली तेज एवं ठंड़ी हवाओं से भी भारतीय उपमहाद्वीप की रक्षा करता हैं।
वह अपनी विशिष्ट भौगोलिक संरचना के कारण देश के लिए युगों-युगों से एक प्रहरी का कार्य भी करता आ रहा है। विकास नदियों में बड़े-बड़े बाँधों का निर्माण, उद्योगों के नाम पर खनन, वन उपज का शोषण एवं दोहन करके उन चीजों को चलन में लाना चाहता है जिनकी बुनियादी आवश्यकता नही है, परन्तु वह उनके उपभोग के द्वारा अधिक से अधिक सुख भोगना चाहता है जिसे विकास की दृष्टि से प्रगति कहा जाता है। लेकिन पर्यावरण की दृष्टि से यह विनाश का प्रतीक है, जिसका दण्ड प्रकृति समय-समय पर आपदाओं के रूप में देती रहती है। वन विनाश के कारण जैव-विविधता लुप्त होती जा रही है इससे वनों पर आधारित समाज में बेचैनी है और वन्य जीव-जन्तुओं की कमी के कारण बाघ जैसा खतरनाक जानवर आदमखोर होता जा रहा है जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण मलेथा और देवप्रयाग में बाघ द्वारा लोगों को निवाला बनाने की घटना है।
पिछले कुछ वर्षों से हिमालय दिवस के अवसर पर विभिन्न सरकारी संस्थाओं में हिमालय बचाने की प्रतिज्ञा, पर्यावरण दिवस के अवसर पर स्कूल, कालेज, महाविद्यालयों, विश्वविद्यालयों एवं विभिन्न सरकारी सस्थाओं व वन विभाग द्वारा प्रतिवर्ष लाखों वृक्ष लगाये/लगवायें जाते हैं और उन वृक्षों को लगाते हुए खूब फोटो भी खीची जाती है जो सोशियल मीडियां पर चर्चा का विषय बनी रहती हैं। भले ही पूरे वर्षभर प्रकृति को विभिन्न प्रकार से नुकसान पहुंचाने के बाद हम एक दिन संदेश देने का कार्य करते है। पर लाखों वृक्ष लगाने के बाद इनमें कितने वृक्ष जीवीत रहते हैं? जो एक चिंतनीय प्रश्न है? और इससे भी ज्यादा चिंता का प्रश्न यह है कि अगर उनमें से 10 प्रतिशत वृक्ष भी जीवीत रहते तो शायद आज वृक्षारोपण की आवश्कता ही नही पड़ती।
इससे स्पष्ट हो जाता है कि हिमालय बचाओं की प्रतिज्ञा और पर्यावरण दिवस में प्रतिवर्ष वृक्षारोपण कार्यक्रम मात्र खानापूर्ति बनकर रह गया है। जबकि जितना पैसा वृक्षारोपण, नर्सरी आदि पर खर्च किया जाता है उतना पैंसा प्राकृतिक वनों की सुरक्षा में लगाया जाता तो हिमालय भी सुरक्षित होता और धरती ज्यादा हरी-भरी रहती। इससे बढकर यह है कि यदि हिमालय के वनों को केवल आग से ही बचा दिया जाय तो शायद हमे इन दिवसों को मनाने की आवश्यकता ही नही पड़ती। क्योंकि हिमालय में प्रतिवर्ष दावाग्नि से ही लाखों पेड़-पौधे, जीव-जन्तु अर्थात पूरी जैव-विविधता नष्ट हो जाती है जिसको बचाने का हम कोई उपाय नही ढूंढ पाये है? इसलिए भविष्य की चिंता को छोड़कर हमें वर्तमान पर कार्य करने की आवश्यकता है, अगर वर्तमान अच्छा होगा तो भविष्य अपने आप सुखद होगा।
लेखक गवर्नमेंट पीजी कॉलेज में असिस्टेंट प्रोफेसर हैं।
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