पहले जैसा नहीं रहा रंगों के त्योहार होली का हर्षोल्लास
डा. नीलम ध्यानी।
पल-पल रंग बदलती दुनिया में अब होली के रंग फीके पड़ने लगे हैं। शायद दुनिया के पल-पल बदलते रंग की वजह से रोज होली होने लगी है। अब होली कब है जानने की लोगों को जरूरत नहीं रही। वास्तव में रंगों के त्योहार होली का हर्षोल्लास कहीं खो गया है। इसको पुर्नजीवित करने की जरूरत है।
भारत तीज-त्योहारों का देश है। यहां की एक-एक परंपरा विज्ञान पर आधारित हैं। समाज इस विज्ञान पर आधारित त्योहारों में रचाबसा है। हर त्योहार किसी खास वजह का प्रतिनिधित्व करता है। हिन्दी के प्रख्यात लेखक भारतेंदु हरिश्चंद्र ने भारतवर्षोन्नति कैसे हो सकती है में लिखा है कि हमारे त्योहार ही हमारी म्यूनिसपालिटी हैं। इस बात से समझा जा सकता है कि हमारे त्योहार कितने विज्ञान पर आधारित हैं।
इसमें स्वच्छता, स्वास्थ्य, संपन्नता, उत्साह, वीरता, रिश्तों, विश्वास, अनुशासन, वर्जनाएं आदि का प्रतिनिधित्व करने वाले त्योहार हैं। होली मतभेद और मनभेद को मिटाकर एक होने का त्योहार है। ये त्योहार रिश्तों में आपसी प्रगाढ़ता महसूस करने का है।
मगर, आधुनिकता ने रंगों के त्योहार को भी नहीं छोड़ा। हर त्योहार की तरह रंगों के त्योहार होली में भी अब पहले जैसी बात नहीं रही। वास्तव में होली के रंगों का हर्षोल्लास अब पहले जैसा नहीं रहा। युवा पीढ़ी की इसमें घटती रूचि चिंता की बात है। यही क्रम जारी रहा तो होली के प्रतीकात्मक बनते देर नहीं लगेगी। मोबाइल इंटरनेट पर हैप्पी होली और मोबाइल वीडियो में पिचकारी के रंग इसे अभासी बनाने पर तुले हुए हैं।
हैप्पी होले का मैसेज आपके फोन पर आते ही भेजने वाले और आपके बीच होली का त्योहार समाप्त हो जाता है। आपको लगता है उसने होली पर याद किया और भेजने वाले को लगता है उसके साथ तो होली हो गई। रंगों के त्योहार की ये हकीकत बनती जा रही है। अभी ये आसान लग रहा है। मगर, ये अभ्यास भारतीय समाज को एकाकीपन की ओर ले जा रहा है।
कभी चार-पांच दिनांे तक चलने वाली होली के दिन भी सिमटने लगे हैं। होली मनाने का रंग-ढंग भी पूरी तरह से बदल गए हैं। होली के पकवानों पर भी इसका असर दिख रहा है। होल्यारों का अनुशासिक हुड़दंग की जगह अब सड़कों पर नजारें कुछ और ही दिख रहे हैं। होली में जिन वर्जनाओं का अनुपालन तय था आज की पीढ़ी उसे समझ ही नहीं पा रही है। आने वाले समय में ये त्योहारों को मनाने के तौर तरीकों पर इसका और अधिक असर दिखेगा।
छरअसल, होली मनाने के तौर तरीके बाजार तय करने लगा है। आधुनिकता की बगाबौल में फंसा समाज बाजार के जाल में बुरी तरह से फंस चुका है। आधुनिक बगाबौल ने होली को बराबरी की श्रेणी के त्योहार से अलग कर दिया है। टका छन त टक टका का सूत्र त्योहार पर पूरी तरह से देखा और महसूस किया जा सकता है। आधुनिकता बाजार आधारित मॉडल समाज में विभेद पैदा कर रहा है।
बुरा न मानो होली है तो आज भी बोला जा रहा है। मगर, अब इसका अनुसरण नहीं हो पा रहा है। लोग इस दिन भी बुरा मानने का अपना एकाधिकार सुरक्षित बनाना चाहते हैं। ऐसे में रंगों के त्योहार का हर्षोल्लास तो कम होगा ही। कुल मिलाकर होली के त्योहार के असली हर्षोल्लास को बनाए रखने के लिए जरूरी है कि बुजुर्गों की छत्रछाया और अनुभवों का अनुसरण हो।
लेखक- गवर्नमेंट कॉलेज में प्राध्यापिका हैं।