एक देश एक चुनावः कितनी हकीकत कितना फसना

एक देश एक चुनावः कितनी हकीकत कितना फसना
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सुदीप पंचभैया।

क्या भारत में लोकसभा और विधानसभा के चुनाव देश की मौजूदा स्थिति में एक साथ कराया जाना संभव है, उवित है ? क्या व्यवस्था में व्यापक सुधार से पहले ऐस करना ठीक है। इसमें कितनी हकीकत और कितना फसाना है।

भारत एक देश एक चुनाव की ओर बढ़ रहा है। कम से कम मौजूदा एनडीए सरकार की मंशा तो कुछ कुछ ऐसी ही दिख रही है। कोविंद समिति की रिपोर्ट को केंद्रीय कैबिनेट मंजूरी दे चुकी है। यानि अब विधि मंत्रालय को इसका मसौदा तैयार करना होगा। ये सरकार के स्तर की बात है। इसको धरातल पर उतरने से पहले कई यक्ष प्रश्नों से होकर गुजरना पड़ेगा।

अब एक देश एक चुनाव पर के पक्ष में जो तर्क गढ़े जा रहे हैं वो सबसे बड़ा तर्क है कि समय और धन की बचत होगी। पिछले चुनावों में हुए खर्च के आंकड़े प्रस्तुत किए जा रहे हैं। तर्क दिया जा रहा है कि 1952 से 1967 तक लोकसभा और राज्य विधानसभा के चुनाव एक साथ कराए जाते थे।

हाल के सालों में भी कई लोकसभा सीटांे और विधानसभा सीटों पर एक साथ चुनाव होते रहे हैं। धन और समय की बचत, 1967 तक चुनाव को एक साथ कराए जाने वाले तर्क आज बहुत ज्यादा प्रासंगिक नहीं हैं। इसकी तमाम वजहें हैं। बार-बार चुनाव आचार संहिता से विकास कार्यों और सामान्य कामकाज के अवरोध पैदा होने का तर्क भी दिया जा रहा है।

लोकसभा और राज्य विधानसभाओं के चुनाव एक साथ होने से राजनीतिक दल जनदबाव से मुक्त हो जाएंगे। जो कि अभी तक कभी लोकसभा और कभी विधानसभा चुनाव के माध्यम से नेता महसूस करते रहे हैं। कई राज्यो के विधानसभा चुनाव दिल्ली की सत्ता के पसीने छुड़ाते रहे हैं। लोकसभा और विधानसभा के चुनाव एक साथ होने से बड़ा दरबार भी इससे मुक्त हो जाएगा। विधायक/सांसद एक ही दिन होने वाले चुनाव से जीत जाएंगे।

तब पांच साल तक न तो सांसद पर अपने क्षेत्र की विधानसभा सीट को पार्टी के लिए जीताने का दबाव होगा और न विधायक पर अपने क्षेत्र से पार्टी के सांसद प्रत्याशी को बढ़त दिलाने का। नेता इस दबाव से मुक्त होेंगे तो इसका खामियाजा आम लोगों को भुगतना पड़ेगा।

कहा जा सकता है कि लोकसभा और विधानसभा चुनाव के अलग-अलग तरीकों के दबाव से राजनीतिक दल मुक्त हो जाएंगे। भारत में जनता के पास सत्ता पर दबाव का एक मात्र तरीका चुनाव है। एक देश एक चुनाव से ये तरीका एक तरह से छिन्न भिन्न हो जाएगा। चुनाव जीतने, सरकार बनने के बाद राजनीतिक दल, विधायक और सांसद जनता के कितने रह जाते हैं ये किसी से छिपा नहीं है।

जनता विधायक और सांसद चुनती है और जीतने के बाद विधायक और सांसद पार्टी के हो जाते हैं। विधानसभा और लोकसभा में वो जनता की आवाज के बजाए पार्टी के व्हिप पर चलता है। कुल मिलाकर एक देश एक चुनाव सुनने/बोलने में अच्छा लग सकता है। इसके पक्ष में धन के बचत की बात अच्छी लग सकती है। इस पर ये सवाल पूछा गया कि इससे बचने वाला धन कहां खर्च होगा।

पिछले 15/20 सालों में देश में सरकारों के स्तर पर धन बचत को लेकर बड़े बड़े कदम उठाए गए। दावा किया गया कि बचत हुई। मगर, जनता को इसका लाभ नहीं मिला। सीएफएल बल्ब के उपयोग का खूब हो हल्ला मचा, लोगों ने इसे अपनाया भी। 100 वाट का बल्ब नौ वाट को हो गया। मगर, लोगों का बिजली का बिल बढ़ गया। ऐसे तमाम उदाहरण आपके पास भी हो सकते हैं।

एक देश एक चुनाव से पहले व्यवस्था में कई सुधार की जरूरत है। इसमें काम न करने, जनता की उम्मीदों पर खरा न उतरने वाले जनप्रतिनिधियों के रिकॉल की व्यवस्था बनें। जनता के पक्ष में आवाज उठाने वाले सांसद/ विधायक पर पार्टी व्हिप का अंकुश न हो। जनता के हित के मामले पार्टी लाइन की भेंट न चढ़ें। इन अमूलचूल परिवर्तन के बगैर एक देश एक चुनाव हकीकत से अधिक फसाना ही अधिक लगते हैं।

Tirth Chetna

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