बात शिक्षक की! वरिष्ठता पर सोशल मीडिया में घमासान
उत्तराखंड की स्कूली शिक्षा में शिक्षकों के जुड़े मुददे/समस्याएं समाप्त होने का नाम नहीं ले रहे हैं। हाई स्कूल/ इंटर कॉलेजों में पढ़ा रहे शिक्षकों के कई प्रकार हो गए हैं। शिक्षक अपना प्रकार/श्रेणी बताने से नहीं हिचकिचा रहे हैं।
इससे वरिष्ठता नाम से पैदा हुई पेचदगियों को दूर करने में विभाग/ शासन नाकाम रहा है। या कहें कि विभाग/शासन इसमें रूचि नहीं दिखा रहा है। परिणाम सोशल मीडिया प्लेटफार्म में घमासान मचा हुआ है।
हिन्दी न्यूज पोर्टल www. tirthchetna.com और हिन्दी साप्ताहिक तीर्थ चेतना ने ऐसे तमाम मामलों मंे शिक्षकों के विचार आमंत्रित किए हैं। अटल उत्कृष्ट राजकीय इंटर कॉलेज, रूद्रप्रयाग में भौतिक विज्ञान के प्रवक्ता नरेश जमलोकी ने इस पर विचार रखे हैं।
नरेश जमलोकी।
अगर सोशल मीडिया पर लिखकर या भाषण या अपनी राय देकर ही वरिष्ठता पर निर्णय होना होता तो 12 वर्षों से यह मामला कोर्ट में ना फंसा होता। कहीं ना कहीं कुछ पेचीदगी ही तो होगी जो इस पर निर्णय नहीं हो पा रहा है और ना ही विभाग निर्णय ले पा रहा है अपनी ही दी हुई वरिष्ठता के आधार पर।
मेरा अभी भी मानना है कि आपसी बातचीत से मामला सुलझ सकता है न कि आपस में व्यक्तिगत आक्षेप लगाकर। उत्तराखंड बनने के पूर्व आखिरी प्रवक्ता पदोन्नतियां सन 1999 में हुई जो कि मौलिक पदोन्नतियां थी। 1996 में उत्तर प्रदेश के प्रमुख सचिव के आदेश के अनुसार यह व्यवस्था निर्धारित की गई कि अब जो भी पदोन्नतियां होगी वह मौलिक होंगी। लेकिन सन 2001 2002 में उत्तराखंड बनने के बाद नवोदित राज्य में एलटी शिक्षकों की आपसी वरिष्ठता अंतिम ना होने के कारण तदर्थ पदोन्नतियां हुई ।
एक विसंगति और अन्याय का उदाहरण देना चाहूंगा (दूसरा मेरा स्वयं का है)। उन पदोन्नतियों में रिक्त पद होने के बाद भी पूर्व से वरिष्ठता में शीर्ष क्रम में 1989 से सेवाएं दे रहे जिन शिक्षक (श्री डी एस बिष्ट प्रवक्ता भौतिक) को होना था वह पदोन्नति से छूट गये। प्रत्यावेदन देने के पश्चात उनकी पदोन्नति दस वर्ष की एलटी सेवा के बाद 2005 में हुई और इनसे कनिष्ठ शिक्षक 2001-02 में ही प्रवक्ता बन गए और बाद में 2010 में बिष्ट जी को सेवा के बाइसवें वर्ष में (भौतिकी जैसे विषय में जहां प्रवक्ता पद रिक्त थे) मौलिक चयन प्रदान किया गया जहां इन्हें 2001-02 वरिष्ठता दी गई।
अब सोचने वाली बात है कि क्या ये कनिष्ठ हैं। ऐसे कई शिक्षक है जिनकी वरिष्ठता निर्धारण विवाद के कारण आज पदोन्नति नहीं हो पा रही है। अब उनका क्या गुनाह है जबकि वरिष्ठता उन्होंने खुद से निर्धारित नहीं की बल्कि विभाग ने निर्धारित की है। एक तथ्य पर और गौर किया जाना चाहिए कि जिन एलटी शिक्षकों की पदोन्नति प्रवक्ता पदों में हुई वह पद उनके ही अपने पदोन्नति के कोटे के थे तथा वह किसी भी सीधी भर्ती के पदों पर पदोन्नति नहीं पाए हुए हैं।जिस कारण उनकी आपसी वरिष्ठता अपने मूल संवर्ग के आधार पर ही निर्धारित होनी है। इस निर्धारण में गलत वरिष्ठता निर्धारण (शैक्षिक योग्यता या न्यूनतम सेवा न होना जैसे प्रकरण) के बाद अनुचित लाभ पाए हुए शिक्षकों की वरिष्ठता को तो गलत ही माना जाना चाहिए। वरिष्ठता निर्धारण पर कुछ महत्वपूर्ण तथ्य ये भी हैं,,
सूची बनाने में निम्नलिखित बातों का ध्यान दिया जाता है आयोग द्वारा चयनित प्रवक्ताओं की सूची जिसमें जो अग्रेतर चयनित हो वह पश्चवर्ती चयनित से सीनियर होते हैं तथा पदोन्नति व्यक्तियों की सूची जेष्ठता नियमावली के अनुसार नियम 7 के अनुसार बनाई जाती है।
प्रवक्ता नियमावली के अनुसार व्यक्तियों की गणना भर्ती वर्ष में की जाती है ।फिर नियम 8 के अनुसार रिक्ति के अनुसार एक पदोन्नति तथा एक सीधी भर्ती के व्यक्तियों को 1.1 के अनुपात में रखा जाता है।
पदोन्नति सूची तैयार करने से पहले उसकी अंनतिम सूची तैयार करके प्रख्यापित कर दी जाती है उसके बाद 15 दिन का समय उस पर आपत्ति दर्ज करने के लिए दी जाती है ।यदि आपत्ति 15 दिन तक ना आए तो फिर उसकी अंतिम कर दिया जाता है । वर्ष 2001 से 2009 तक की वरिष्ठता सूची इन नियमावली के आलोक में तैयार की गई है।
आजकल वरिष्ठता विवाद पर सोशल मीडिया पर कुछ आधी अधूरी सूचनाएं आ रही है जिन पर मेरा सोचना यह है कि,,,,
1- वरिष्ठता निर्धारण में तीन शीर्ष अधिकारी शामिल रहे और उनकी उपस्थिति में क्या एक कार्ययोजित प्रवक्ता इतने ताकतवर थे कि उन्होंने इन अधिकारियों को दरकिनार कर अपनी मर्जी मुताबिक वरिष्ठता निर्धारित कर दी और यह सिलसिला कई बार चलता रहा।
2- उन पदोन्नत प्रवक्ता की स्वयं की तदर्थ पदोन्नति 2001 में हुई और मौलिक वरिष्ठता 2005 में मिली तो इतने ताकतवर व्यक्ति ने खुद को 4 साल के घाटे में रखकर क्या हासिल किया।
3- जिस शासनादेश के आधार पर पदोन्नतियां दस वर्ष तक होती रही उसके अस्तित्व पर यदि प्रश्नचिन्ह उठ रहे हैं तो उसकी जांच तो किसी बड़ी एजेंसी से होनी ही चाहिए क्योंकि उसके आधार पर अब एलटी से पदोन्नत शिक्षकों को फर्जी तक कहा जा रहा है जबकि वे उच्च शिक्षा प्राप्त योग्य शिक्षक हैं। लेकिन सवाल ये भी है कि इतने बड़े शिक्षा विभाग में इन पदोन्नति के आदेशों पर हस्ताक्षर करने वाले बड़े-बड़े अधिकारी क्या बगैर किसी आधार के इन आदेशों को पारित कर रहे थे ,,,क्योंकि कहीं ना कहीं कोई आधार तो रहा होगा जिसे सामने लाना चाहिए।
4- इस विवाद में 2005 से पूर्व पदोन्नत शिक्षकों का क्या दोष है जो उनके प्रति विष वमन किया जा रहा हैं क्योंकि वरिष्ठता के लिए उन्होंने 10 वर्षों तक इंतजार किया और विभाग पर भरोसा किया कि विभाग उनके साथ न्याय ही करेगा।
5- आयोग से चयनित शिक्षकों को भी न्याय मिलना चाहिए लेकिन जो उनसे कई वर्ष पूर्व प्रवक्ता वास्तविक रूप में बन गए उनके साथ भी तो न्याय हो क्योंकि उनकी सेवा अब केवल दो से तीन वर्ष है और ये भी अब शास्वत सत्य है कि इन शेष वर्षों में वे कभी भी प्रधानाचार्य नहीं बनेंगे,,,इसलिए भविष्य में युवाओं के वर्ष तो अब खराब न हों ।
आशा है फिर मतभेद भुलाकर कुछ कुछ दोनो पक्ष आपस में सहमति बनाकर कुछ ऐतिहासिक जरूर करेंगे।