एक देश, एक शिक्षा पर आगे बढ़ने की जरूरत
सुदीप पंचभैया।
एक देश, एक चुनाव की तर्ज पर एक देश एक शिक्षा (समान शिक्षा) पर आगे बढ़ने की जरूरत है। इसके माध्यम से देश में एका का सबसे बड़ा केंद्र विकसित किया जा सकता है, जो कि राष्ट्र की बेहतरी वाला साबित होगा।
आजादी के बाद देश में शिक्षा की बेहतरी के लिए खूब काम हुए। सुधार के लिए आयोग बनें। क्या पढ़ाया जाए और कैसा पढ़ाया जाए इस पर खूब राजनीति भी होती रही है। पाठयक्रम में बदलाव किए गए। बहरहाल, बेहतरी के नाम पर शिक्षा का अधिकार कानून बना। मगर, व्यवस्था समान शिक्षा का कानून नहीं बना सकी। परिणाम देश में जितनी असमानता शिक्षा में है उतनी कहीं नहीं।
राजनीतिक व्यवस्था शिक्षा को कितना महत्व देती है कि आजादी के बाद से अभी तक अखिल भारतीय स्तर पर अभी तक शिक्षा सेवा कैडर नहीं बना सकी। परिणाम देश के स्तर पर शिक्षा के लिए प्रतिबद्ध नौकरशाही का अभाव भी दिखता है। कभी खनन और आबकारी जैसे विभाग की जिम्मेदारी संभालने वाला अधिकारी दूसरे दिन शिक्षा की जिम्मेदारी संभालता है।
बहरहाल, देश का नौनिहाल आंख खोलते शिक्षा से शुरू होने वाली असमानता से दो-चार होता है। शिक्षा व्यवस्था जनित असमानता उसके मन मस्तिष्क को कई तरह से प्रभावित करती है। नौनिहाल स्कूल परिसर, स्कूल में उपलब्ध सुविधाएं, गणवेश, स्कूल का रंग रूप आदि आदि भिन्नताओं को देखता है। आगे चलकर ये असमानता समाज में कई तरह से देखने को मिलती है। समाज में इसे नियति भी मान लिया गया है। जबकि ये पूरी तरह से व्यवस्था की असफलता है। हैरानगी की बात ये है कि व्यवस्था इस असमानता को एड्रेस करने से भी कतराती है।
शिक्षा के नाम पर काम कर रहे तमाम एनजीओ का फोकस सरकारी स्कूलों की खामियां गिनाने पर है। एक समाज स्कूल, एक जैसा गणवेश, एक जैसा शुल्क आदि पर कोई मुंह खोलने को तैयार नहीं है। अब वो दौर भी समाप्त हो गया है कि जब शिक्षा और समाज सुधार जैसे मुददों पर समाज के अंदर से नेतृत्व आगे आता था। अब सब कुछ बाजार जनित है।
बहरहाल, सीबीएसई, आईसीएसई, जितने राज्य उतने बोर्ड, सभी राज्यों के शिक्षा से संबंधित अपने-अपने राग। इसे कई मौकों पर अनेकता मंे एकता के रूप में प्रदर्शित किया जाता है। राज्य स्तर पर इसे प्रोत्साहित भी किया जा सकता है। मगर, इस बहाने से समान शिक्षा व्यवस्था से मुंह नहीं मोड़ा जाना चाहिए। हालांकि अब शिक्षा बाजार के हवाले हो गई है। व्यवस्था बाजार के चंगुल में है। बाजार का भी समाज ने पूरी तरह से जकड़ दिया है। सरकारी शिक्षा को बाजार ने दोयम दर्जे का साबित करने के लिए बड़ा निवेश किया जा रहा है।
इस पर अंकुश लगाने को जरूरी है कि 12वीं तक समान शिक्षा (एक देश एक शिक्षा बोर्ड और एक देश एक पाठ्यक्रम) हो। एक देश-एक कर लागू किया गया, उसी प्रकार 12 वीं तक एक देश-एक सिलेबस भी लागू करना अति आवश्यक है। पढ़ने-पढ़ाने का माध्यम भले ही अलग हो लेकिन सिलेबस पूरे देश में एक समान होना चाहिए और किताब एक होनी चाहिए।
ऐसा संभव है। जिस प्रकार से केंद्र सरकार एक देश एक चुनाव के लिए जोर लगा रही है। उसी प्रकार के प्रयास एक देश एक शिक्षा के लिए होने चाहिए। दावा किया जा रहा है कि एक देश एक चुनाव से देश को आर्थिक लाभ होगा। बार-बार चुनाव से पैदा होने वाली दिक्कतें नहीं होंगी।
यकीन मानिए एक देश एक शिक्षा से भी समाज और देश को बड़े लाभ होंगे। समानता का भाव और मजबूत होगा। समाज में बन रही तमाम अंतर समाप्त हो जाएंगे। माहनगरों के स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे जैसे मौके सुदूर गांव के बच्चे को भी मिलेंगे। उसे भी वैसे ही प्रशिक्षिक शिक्षक पढ़ाएंगे जैसे महानगरों में।