विकास से पर्यावरणीय संवेदनशीलता को खतरा
जय प्रकाश नारायण
पिछले साल अक्तूबर माह में प्रधानमंत्री द्वारा रोहतांग में अटल सुरंग का उद्घाटन होने के साथ हिमाचल प्रदेश की लाहौल घाटी का संपर्क बाकी देश से बने रहना आसान हो गया है। इस तरह वह इलाका जो हर साल लगभग छह महीने तक बाहरी जगत से कट जाता था, अब वहां पूरे साल जाया जा सकता है। इसको स्थानीय लोगों ने अपने लिए एक क्रांतिकारी कदम बताया और इस अवसर पर नाच-गाकर खुशी मनाई थी। लेकिन उनका यह आनन्द भाव बहुत कम समय तक रहा। अब स्थानीय बाशिंदे अपने वजूद को लेकर चिंतित हो उठे हैं।
उनकी इस व्यग्रता का आगाज वहां प्रस्तावित अनेकानेक पनबिजली परियोजनाओं को हाल ही में मिली मंजूरी से हुआ है। उन्हें डर है कि कहीं लाहौल का हाल भी उत्तराखंड और हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले जैसा न हो जाए, क्योंकि भौगोलिकता, पहाड़ों की ऊपरी परत की नाजुकता और पर्यावरणीय चिंताए एक समान हैं। जिस तरह हिमालयी राज्यों में विनाशकारी घटनाओं से संकट लगातार गहराता जा रहा है, लोग मर रहे हैं और मुश्किलें बढ़ रही हैं, उसे देखते हुए यह भय पूरी तरह निराधार भी नहीं है।
वर्ष 2013 में हुए केदारनाथ हादसे को कौन भूल सकता है, जिसने लगभग 5000 जानें लील ली थीं। केदारनाथ त्रासदी के आलोक में सर्वोच्च न्यायलय ने पर्यावरण मंत्रालय में पुनर्समीक्षा लंबित रहने तक उत्तराखंड में नए पनबिजलीघरों के निर्माण पर रोक लगा दी। पर्यावरण मंत्रालय द्वारा गठित चोपड़ा समिति ने बाद में निष्कर्ष निकाला कि 24 पनबिजली परियोजनाओं में 23 से इस इलाके के पर्यावरण पर अपरिवर्तनीय असर पड़ सकता है। इस किस्म की घटनाएं, भले ही कुछ अलग स्वरूप वाली, उत्तराखंड में चमोली समेत अन्य जिलों में जब तब घटती रहती हैं, इस साल फरवरी माह में हुए एक विशाल हिम एवं चट्टान स्खलन में 70 से ज्यादा लोगों की जानें गईं।
11 अगस्त के दिन हिमाचल प्रदेश के किन्नौर जिले में निगुलसरी में भारी भूस्खलन हुआ था, जिसमें कम से कम 28 लोग मारे गए, इनमें कुछ राज्य परिवहन के बस यात्री थे तो चंदकार सवार लोग, जो मलबे में दब गए। इसी तरह का हादसा किन्नौर के बटसेरी में भी हुआ, जहां गिरी एक विशाल चट्टान ने 9 लोगों की जान ले ली थी। हादसे के शिकार बने 8 व्यक्ति एक पर्यटक बस में थे। इस किस्म की घटनाएं अभूतपूर्व और खतरनाक, दोनों होती हैं। मानवजनित गतिविधियों के परिणामस्वरूप बनी यह घटनाएं बिना पूर्व सूचना दिये और बारम्बार होने लगी हैं। दुख की बात है कि यह घटनाएं न केवल लोगों की जानें लील लेती हैं बल्कि प्रकृति से सामंजस्य एवं शांति बनाकर जीने वाले स्थानीय सरल और मेहनतकश बाशिंदों के लिए अकथनीय मुसीबतें और आर्थिक संकट पैदा कर देती हैं।
ये हादसे अब बार-बार क्यों घटने लगे हैं, इनका मूल कारण क्या है? क्या यह चेतावनी संकेत केवल लाहौल घाटी तक सीमित हैं? मुख्य वजहों में पनबिजली घरों का निर्माण और अवैज्ञानिक ढंग से सड़कें चौड़ी करने वाला काम है। भूविज्ञान अध्ययन संस्थान की रिपोर्ट के मुताबिक पहाड़ों में बुनियादी ढांचा विकसित करने और उच्च मार्ग बनाने की प्रक्रिया में किए गए अंधाधुंध विस्फोटों ने धरती की ऊपरी संवेदनशील परत को कमजोर कर दिया है, जिसकी वजह पहले से नाजुक पर्यावरण वाले इस क्षेत्र में भूस्खलन तथा बाढ़ का खतरा और बढ़ गया है।
लाहौल घाटी में बिजली परियोजनाएं बनाकर मुनाफा बनाने का मौका भांपकर निजी क्षेत्र इस ओर आकर्षित हुआ है। अटल सुरंग की बदौलत नि़र्माण कार्य के लिए भारी मशीनरी वहां पहुंचानी आसान हो गई है। इससे घाटी के लोगों में बड़े स्तर पर चिंता पैदा हो गई है कि यदि पनबिजलीघर बनने पर अमल हुआ तो यहां की नाजुक एवं अछूते पर्यावरणीय स्थिति को भारी नुकसान पहुंचेगा, जिसका भारी खमियाजा स्थानीय लोगों को भुगतना पड़ेगा।
साफ है यह मानव-जनित संकट हैं और उनके मूल कारण लगभग एक समान है। विकास परियोजनाओं का आवंटन करते वक्त विशेषज्ञ इनकी शिनाख्त ‘नाकाफी जोखिम प्रबंधनÓ वाली योजना के तौर पर देते हैं और निर्णय करते समय पर्यावरण एवं मौसम को होने वाले वास्तविक नुकसान का कम आकलन किया जाएगा। स्थिति की गंभीरता को देखते हुए हिमाचल प्रदेश उच्च न्यायलय ने वस्तुस्थिति का जायजा लेने को एक दशक पहले एक सदस्यीय शुक्ला समिति बनाई थी। इसने अपनी रिपोर्ट में सुझाव दिया है कि हिमाचल प्रदेश में नये पनबिजलीघर बनाने पर तुरंत रोक लगाई जाए, खासकर लाहौल-स्पीति घाटी में। इसके बावजूद, कमेटी के दिए सुझावों को अनदेखा कर नये पनबिजली घरों के निर्माण कार्य को मंजूरी देना और आवंटन जारी है।
तो आगे की राह क्या है? पहला कदम यह अहसास करने का है कि पनबिजली घर पर्यावरण और मानव के लिए खतरा हैं। इसलिए नए खुले लाहौल-स्पीति जिले और इस जैसी भौगोलिकता एवं नाजुकपन वाले क्षेत्रों में विनाश और त्रासदी बनाने वाले कामों को किसी भी कीमत पर रोका जाए। सतत अक्षय ऊर्जा बनाना भारत की पहली तरजीह है, जैसा कि हाल ही प्रधानमंत्री ने जिक्र किया है कि पनबिजली की बजाय सौर, पवन और हाइड्रोजन चालित पॉवर का दोहन किया जाए। सरकार को मुनाफे के बजाय लोगों का भविष्य अक्षुष्ण बनाना होगा।
इससे अधिक यह कि 11,000 वर्ग किमी में फैली लाहौल-स्पीति को प्रकृति ने भरपूर सूर्य रोशनी और पवन ऊर्जा से नवाज़ा हुआ है। भारत, जो कि सौर ऊर्जा में पहले ही विश्व में अग्रणी है, उसे चाहिए कि इस अकूत अक्षय स्रोत का दोहन करे। यही समय है जब राज्य सरकार को भी इसकी क्षमता का अहसास हो और पनबिजली पर ज्यादा झुकाव रखने वाले रवैया का पुनर्मूल्यांकन करे, जबकि सबूत साफ बता रहे हैं कि मानव जीवन और पहाड़ी क्षेत्र को इससे कितना बड़ा नुकसान है। इस सब के आलोक में मंजूर की गईं अनेकानेक परियोजनाओं पर तुरंत रोक लगाई जाए।
दूसरा, सड़क और उच्च मार्ग बनाते समय निर्माण के लिए पहाड़ हिलाने वाले विस्फोट करने की जगह आधुनिक एवं पर्यावरण मित्र तकनीक एवं डिज़ाइन का प्रयोग किया जाए। तीसरा, विकास परियोजनाओं की एवज पर पैदा होने वाले जोखिम और लोगों के जीवन पर खतरे का वास्तविक आकलन किया जाए, पर्यावरणीय बदलावों की निगरानी, यथेष्ट स्थानीय एवं नीति आधारित शमन उपायों की शिनाख्त की जाए, इस बारे में सामाजिक संस्थान और समुदायों की भूमिका बहुत महत्वपूर्ण है।
अंत में, मौजूदा दुनिया जिसमें हम रह रहे हैं और जो आपस में जुड़ी हुई है और सब एक-दूसरे पर आधारित हैं, हमारे जीवन की गुणवत्ता एवं वजूद पूरी तरह शुद्ध पानी, हवा, भोजन इत्यादि पर निर्भर है। विकास के नाम पर होने वाला कोई भी विनाश हमारे पर्यावरण और मानव भलाई की कीमत की एवज पर होगा। हमें विकास का ऐसा मॉडल अपनाना होगा, जिससे कि लोगों का स्वास्थ्य और भलाई की चिंता को आर्थिक तरक्की और मुनाफा से ऊपर रखा जाए।