कठिन का अखाड़ेबाज और अन्य निबंध

एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।
इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।
ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। हिन्दी न्यूज पोर्टल www.tirthchetna.com एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा।
साहित्य को समर्पित इस अभियान का नेतृत्व श्रीदेव सुमन उत्तराखंड विश्वविद्यालय की हिन्दी की प्रोफेसर प्रो. कल्पना पंत करेंगी।
डॉ. विजय कुमार।
मौजूदा समय के संदर्भ में जो बड़े बदलाव हुये है वह सन 1990 के दौर में हुये बदलाव हैं। जिससे साहित्य, समाज, राजनीति, अर्थनीति सभी उस बदलाव के जदमें आए। साहित्य में इस बदलाव का परिणाम हुआ कि विषय, युक्ति, कथ्य औरउसके दूसरे अन्य पहलुओं पर भी बदलाव की छाया स्पष्ट तौर पर दिखलाई पड़ने लगी। इस बदलाव ने समाज में ‘सब कुछ तेज़’ कर देने का अनावश्यक दबाव बनाया। जिसका परिणाम यह हुआ की बदलाव की प्रक्रिया ने साहित्य से लेकर समाज तक ठहर कर प्रामाणिकता पर सोचने के बजाए या यों कहें ढूंढ कर पढ़नेके बजाए कहीं सुन कर पढ़ने कि प्रवृति चलन में आई और जिसका खामियाजासबको उठाना पड़ा। साहित्य से लेकर समाज तक में तात्कालिक प्रतिक्रियाएँ बाढ़के रूप में आने लगी। हालांकि इसी दौर में साहित्य, समाज और राजनीति में न्यायपरक बदलाव भी देखने को मिले परंतु यह दौर सबसे अधिक विस्थापन की संस्कृति को बढ़ाने वाला भी हुआ।
विस्थापन केवल जमीन या संस्कृति से ही नहींबल्कि विचारों से भी विस्थापन देखने को मिलने लगा और सब कुछ के एवज मेंलाभ कमाने की नव संस्कृति ने सुधार, बदलाव के साथ बेदखली को भी बढ़ावादिया। ऐसे दौर में व्योमेश शुक्ल चिंतन के कुछ नए सूत्रों की तलाश करने के लिएशब्दों के अखाड़ों के कठिन दुनिया में प्रवेश करते हैं। व्योमेश शुक्ल समकालीनहिन्दी के प्रमुख कवि के रूप में दिल्ली से लेकर बनारस तक चर्चित है। इनके चर्चा का एक सबसे महत्वपूर्ण पहलू उनका सांस्कृतिक रंगकर्मी के बतौर पिछले कुछ समय से आंदोलनरत होना भी है।
जिसका स्पष्ट प्रभाव इस पुस्तक के निबंध-लेखन में देखा जा सकता है, जहां साहित्य-कला को संपूर्णता में देखने की कोशिश की गई हैं।
कार्ल क्रौस का एक प्रसिद्ध कथन है कि मनुष्य को अंत में वहीं लौटना पड़ता है जहां से वह शुरू करता है, एक चिंतनशील मन के साथ भी यही होता है। जहां उसे अपने सोचने-समझने की के लिए अपने मानसिक धरातल पर ही लौटना पड़ता है।
व्योमेश शुक्ल कविता-संस्कृतिकर्मी के बतौर एक स्थापित नाम है जो चिंतन यात्रा के कठिनाई को इस पुस्तक में शब्द दिये हैं। परंतु वह सब कुछ एक कवि बोध के परिणाम के रूप में नजर आता हैं। इस पुस्तक को देखने पर साहित्य और कला कि दुनिया की यात्रा होती हैं। आमतौर पर साहित्य में जिन्हें याद करने कि परिपाटी नहीं है उन्हे इस पुस्तक में व्योमेश शुक्ल स्थान देते हैं। कठिन का अखाड़ेबाज़ और अन्य निबंध’ पुस्तक कवि-आलोचक व्योमेश शुक्ल के चिंतन यात्रा के महत्वपूर्ण दस्तावेज़ हैं। जिनमे भिन्न-भिन्न समयों, अंतरालों परसाहित्य, संस्कृति और समाज को लेकर किए गए विचार लिपिबद्ध है।
इस पुस्तक का अधिकांश हिस्सा समकालीन आधुनिक कविता पर केन्द्रित है जिनमें निराला शमशेर से लेकर कुँवर नारायण, अशोक वाजपेयी, असद जैदी तक के कवि शामिल हैं। वर्तमान समय की कविता को लेकर कई तरह के आरोप लगाए जाते हैं लेकिन कविता अपनी निरंतरता में वर्तमान समय के वैश्विक चिंताओं, राजनीतिक तेवर को अभी भी बरकरार रखे हुये हैं। पहले जहां चिंता के केंद्र में साम्राज्यवादी ताकतोंके खिलाफ मनुष्यता के संघर्ष की लौ को जिंदा रखने वाला कोई उम्मीद हुआ करता था।
वही आज की तारीख में समूहिक चेतना के नाम पर सांप्रदायिकता औरसमय की असंवेदनशीलता, क्रूरता के खिलाफ उम्मीद की रौशनाई को स्वर देने वाली कविता अंधेरे में चिराग की तरह दिखलाई पड़ती है।
‘साहित्य राजनीति के लिए मशाल’ के रूप में रही है यह केवल एक चलताऊ वाक्य भर नहीं है बल्कि एक ज़िम्मेदारी भरा वाक्य है। साहित्य, कला और समाज में जिसने इस ज़िम्मेदारी को समझा वह अन्यायपरक अंधेरगर्दी के खिलाफ उतना ही मुखर हुआ। व्योमेश शुक्ल जिन कवियों को लिखने के लिए चुनते है उनमेंअधिकतर को राजनीतिक कविताओं को लेकर बहुत गुरेज नहीं रहा है। हालांकि लेखक को विचार करते हुये यह लगता है की इसमें इतनी तरक्की हुई है कि एक राजनैतिक एजेंडा अब राजनैतिक पार्टियों में नाम लेने तक आ चूका है। परंतु यह हिन्दी कविता में जनपक्षधर कविताओं में पहले से होता आ रहा है।
नागार्जुन की कवितायें इस तथ्य का प्रत्यक्ष प्रमाण है जहां सत्ता या किसी राजनीतिक दल को उनके अन्यायकारी पक्ष को ले खुलेआम लिखा-पढ़ा जाता था और पहरे तब भी थे। असद जैदी अपनी एक कविता में राजनीतिक चिंता को सामने रखते हुये लिखते हैं अगर वोट डालने निकल ही पड़ी हो कहीं भूलकर भी न लगा देना उस फूल पर निशान” इन पंक्तियों को लेकर व्योमेश शुक्ल इसे ‘प्रेम निवेदन की भाषा में’ ‘सबसे बड़े खतरे का दमन कर डालने की चुनौती’ कहते हैं।
कहते है कि जबराजनीति हमारेभविष्य को गढ़ता है तो यह जरूरत और ज़िम्मेदारी भी होती हैं कि राजनीति के भविष्य को भी गढ़ा जाए। यहाँ राजनीति के निर्णायक होने को लेकर दबाव इतना ज्यादा है कि कवि राजनीति के उस आसन्न खतरे को लेकर आशंकित हो उठता है
और वह अपनी प्रेमिका को आगाह करता है। यहाँ प्रेम निवेदन का एक मनुहार भी है, वोट के बहाने उस फूल का बटन नहीं दबा देना जो प्रेम के कोमलतम क्षणों का गवाह बना था।
पुस्तक में व्योमेश शुक्ल बौद्धिक भावुकता और आलोचनात्मक दोहराव को लेकरथोड़े परेशान नजर आते हैं। हालांकि इन सबके बावजूद वह अपने समय की ज्वलंत राजनीतिक बहस की गहराई को मापने की कोशिश जरूर करते हैं। असद जैदी की कविताओं के माध्यम से कविता में राजनीतिक बहसों को सामने ला वर्तमान समय उन बहसों को छूने-पकड़ने का प्रयास करते हैं जिसे राजनीतिक आंधी के दबाव को देखकर लोग प्रायः छोड़ देते हैं।
पुस्तक में कुँवर नारायण के बारे में लिखते हुये व्योमेश शुक्ल कहते है कि आज के भीषण वक्त में वह नैतिकता का जोखिम लेते हैं। हम जानते हैं नैतिकता अपने स्वरूप में उपदेशात्मक और आदर्श को स्थापित करने के लिए ही होती है। समाज में मूल्यों के ह््रास के बावजूद कविता में इस तरह का जोखिम लेना कुँवर नारायण की विशेषता है। वह मूलतः मानवीय मूल्यों में एक कवि का अगाध विश्वास भीहैं। यहाँ व्योमेश शुक्ल का एक प्रश्न वाजिब है कि कुँवर जी द्वारा आज की कविता को बोधगम्य न होने के कारण अतिबौद्धिक कहना कोई टूक की बातनहीं। पुछना चाहिए कि बार-बार गालिब का उदाहरण देने के बावजूद आज के कविखुद गूढ या जटिल बातों को आसान भाषा में क्यों नहीं कह पाते है। परंतु दुरूहता को ही आधार बनाकर किसी कवि या काव्य चेतना को कमतर करके नहीं देखा जा सकता हैं। हालांकि कवि से हमेशा यह अपेक्षा होती है की काव्य-भावनाओं को जन भाषा बोध के साथ ही प्रस्तुत करें।
‘कठिन का अखाड़ेबाज़ और अन्य निबंध’ पुस्तक व्योमेश शुक्ल के साहित्य और संस्कृति पर लिखे गए निबंधों और विचारों के माध्यम से समसामयिक पड़ताल भी है। इस विचार प्रधान पुस्तक में व्योमेश शुक्ल ने कविता संबंधी विचार करते हुये लिखा है कि “कविता पढऩे वाले अल्पसंख्यक तो हैं, लेकिन अपार हैं। उन्हें गिनती में सीमित नहीं किया जा सकता। वे कविता से रिश्ता न रखने वाले बहुसंख्यकों से कम ज़रूर हैं, लेकिन परिमेय नहीं हैं। कविता से खुद को और खुद से कविता को बदलने वाले वे लोग लगातार हैं, लेकिन भूमिगत और चुप्पा हैं। वे इस तरह छिपे हुए, बिखरे हुए, गुमशुदा और सतह के नीचे हैं कि उनकी गिनती नहीं की जा सकती। दरअसल, इस आत्मलिप्त और सतही संसार में कविता की सक्रियताएँ एकखास तरह की अण्डरग्राउण्ड एक्टिविटी हैं।
मेरी बात का यह मतलब नहीं लगाया जाना चाहिए कि हम वृहत्तर समाज में कविता के लिए कोई स्पेस या रियायतमाँग रहे हैं। हम ऐसी स्थिति से क्षुब्ध ज़रूर हैं, लेकिन मुख्यधारा का हीनतर अनुषंग बन जाने के लिए कभी कोई कोहराम नहीं मचा रहे हैं। हम उस समाज के अधुनातन स्पन्दनों की, उसके उत्थान और पतन की, उसके अतीत, वर्तमान औरभविष्य की मीमांसा करने वाला गद्य लिखना चाहते हैं, जिसका हम खुद बहुतछोटा हिस्सा हैं।”
यह सत्य है कि कविता कोई वजह नहीं बल्कि सत्य और स्वत्व की एक अभिव्यात्मक अनुभूति है जिसे शब्दों के जरिये कवि संभव बनाता हैं। व्योमेश शुक्ल भी अपने कवि मन के साथ चिंतन की यात्रा पर निकलते हैं, जो लिखने और कला-संस्कृति के लिए निरंतर एक स्पेस को रचने की कोशिश करते रहते हैं। जहां वह शमशेर से भी जुडते हैं तो बिस्मिल्ला खां पर भी विचार करते हैं और पढ़ने वाले अध्येता को कला-साहित्य दोनों को समझने की दृष्टि प्रदान करते हैं।
जहां उनके लिखने की चाह की कोई वजह नहीं है बल्कि वह अपनी शर्तों पर है, किसी वजह की शर्त पर नहीं। व्योमकेश शुक्ल के शब्दों में कहे तो “वह स्वयंभू है और इसी स्तर पर उसका स्त्रष्टा निरंकुश है।” कविता अपने स्पेस को अपने इतिहास बोध और तात्कालिकता के साथ रचती रहती है। लोकवृत में कविता ही अभिव्यक्ति का वह माध्यम है जिसके जरिये भावनाओं को बगैर किसी अक्षर ज्ञान के भी स्वर दिया जाता हैं। हिन्दी कविता का इतिहास इस तथ्य से भरा हुआ है। आधुनिक भावबोध को अभिव्यक्त करने में गद्य की भूमिका से इंकार नहीं किया जा सकता हैं जिसकी ओर व्योमेश शुक्ल संकेत करते हैं। समकालीन दौर में जहां कविता में वर्तमान की चेतना है वहीं गद्य में भविष्य की चिंता हैं। इसी भविष्य की चिंतन यात्रा को कवि व्योमेश शुक्ल अपनी पुस्तक के माध्यम से सबके सामने लाने की कोशिश करते हैं। अपने गद्य को लेकर सफगोई और मौलिकता का आग्रह इस पुस्तक की विशेषता हैं।
लेखक नॉर्थ ईस्टर्न हिल यूनिवर्सिटी शिलांग में प्राध्यापक हैं।