समाज के सच से रूबरू कराता ’हैंडल पैंडल’

समाज के सच से रूबरू कराता ’हैंडल पैंडल’
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एक किताब
किताबें अनमोल होती हैं। ये जीवन को बदलने, संवारने और व्यक्तित्व के विकास की गारंटी देती हैं। ये विचारों के द्वंद्व को सकारात्मक ऊर्जा में बदल देती है। इसके अंतिम पृष्ठ का भी उतना ही महत्व होता है जितने प्रथम का।

इतने रसूख को समेटे किताबें कहीं उपेक्षित हो रही है। दरअसल, इन्हें पाठक नहीं मिल रहे हैं। या कहें के मौजूदा दौर में विभिन्न वजहों से पढ़ने की प्रवृत्ति कम हो रही है। इसका असर समाज की तमाम व्यवस्थाओं पर नकारात्मक तौर पर दिख रहा है।

ऐसे में किताबों और लेखकों को प्रोत्साहित करने की जरूरत है। ताकि युवा पीढ़ी में पढ़ने की प्रवृत्ति बढे। हिंदी न्यूज पोर्टल www.tirthchetna.com एक किताब नाम से नियमित कॉलम प्रकाशित करने जा रहा है। ये किताब की समीक्षा पर आधारित होगा।

डा. करूणा शर्मा।
कहानी साहित्य जगत की ऐसी महत्वपूर्ण विधा है जिसे बच्चा भी और बढ़ा भी, सामान्यजन भी पढ़कर आनंदित होता है और विद्वज्जन भी। आजकल कहानी की एक नई विधा ’लघु कथा’ पाठकों में लोकप्रिय हो रहे हैं।

आज मेरे सामने आया मितेश्वर आनंद जी का पहला कहानी संग्रह ’हैंडल पैंडल’। इसका शीर्षक ही चौंकाने वाला था। शीर्षक ने इसको पढ़ने की उत्सुकता पेदा कर दी। पढ़ने पर पता चला कि इसमें कहानियाँ भी हैं और लघु कथाएँ भी हैं। ’काव्यांश प्रकाशन, देहरादून’ से प्रकाशित 19 कहानियों से भरपूर यह कहानी संग्रह 108 पृष्ठों में समा गया है।

’ठिठुरते भगवान’, ’ये कहाँ जा रहे हम-ं1’, ’कबाड़ी वाला’, इन्हें लघु कथा कहा जा सकता है क्योंकि ये कथाएँ मर्म पर ऐसा प्रहार करती हैं कि व्यक्ति सोचने पर विवश हो जाता है। ’ठिठुरते भगवान’, में ठंड से कंपकपाते मनुष्यों का ऐसा जीवंत चित्रण और उन्हें देख कर भी पूजा, प्रेयर और इबादत करने वालों द्वारा न देखा जाना प्रमाण बन जाता है कि उनकी पूजा, प्रेयर और इबादत मात्र दिखावा है। दरिद्रनारायण का अर्थ समझने में और यह बताने में कि आज समाज में मानवीय संवेदनाओं को प्रचंड शीत का लकवा मार चुका है, कहानी सफल हो जाती है।

ऐसे ही ’कबाड़ी वाला’ कहानी बातों ही बातों में संकेत कर देती है कि अगर समाज में कहीं भाव और संवेदनाएँ जीवित हैं तो वह केवल गरीब तबके में ही हैं। कहानीकार लिखता है, ’उसने अपनी जेब टटोली, जो कुछ भी था, सम्राट बाबा की हथेली पर रख दिया। चलते- चलते उसने सम्राट से कहा, ’अपना ख्याल रखना बाबा।’ और  इसप्रकार पितरों के श्राद्ध के अवसर पर दिया गया अपनी जेब का समस्त भंडार कबाड़ी वाले को देकर स्वयं में ही उस अत्यंत गरीब व्यक्ति कोलगता है कि यथायोग्य पूजन न होने पर भी ’भाव पितरों तक पहुँच चुके थे।’ ऐसे ही ’ये कहाँ जा रहे हम-ं1’ में आज के मूल्यहीन हो चुके युवाओं की सोच पर जबरदस्त प्रहार किया है।

’हैंडल पैंडल’ की कहानियों के आईने में समाज का सच दिखाई देता है। मद्दी के रावण’ में सरकारी स्कूलों और शिक्षकों की पोल तो खोली ही गई है साथ ही ’गुंडाराज’ आज किस तरह से शासन करता है, उसकी प्रतीकात्मक अभिव्यक्ति भी है।

आजादी के 75 वर्षों में भी स्त्री की स्थिति में परिवर्तन नाम मात्र को ह ीआया है। पितृ सत्ता आज भी समाज पर काबिज है, इसका कारण भी स्त्रियाँ स्वयं ही हैं। मेरी इस बात पर आप प्रश्न करेंगे कि ऐसा कैसे? लेकिन इसका सच जानना है तो पढ़नी होगी कहानी ’अदृश्य अंतर’ जिसे पढ़कर आप मेरी बात से सहमत हुए बिना नहीं रह सकेंगे। यदि स्त्रियों को समाज में जगह चाहिए तो उन्हें माँ, बहन, पत्नी की भूमिका में स्वयं अपनी मानसिकता में सुधार करना होगा।

प्रशंसा करनी होगी कहानीकार की जिसने बिना लंबी- चौड़ी व्याख्या किए इस अदृश्य अंतर को समझा दिया। यदि आपको एक ही कहानी में दायित्व हीनता का भाव, खेलते समय सब कुछ भूल जाने का भाव, ईर्ष्या, द्वेष, क्रोध और आवेश के भाव, धैर्य-अधैर्य विजित- पराजित, खोने- पाने, हीनता और श्रेष्ठता, हास्य- व्यंग्य आदि भावों का आनंद और उनके परिणाम को एक जगह देखना है तो पढ़नी होगी कहानी़ ’पापा की लात’। मनोविज्ञान की उत्कृष्ट प्रस्तुति है, ’पापा की लात’। ज्यों-ज्यों पाठक इसे पढ़ता जाता है उसके समक्ष सारी स्थिति सजीव- सी घटित होती चलती है।

’हैंडल पैंडल’ इस संग्रह की सबसे बड़ी कहानी है। प्रस्तुति रोचक है और पाठक को अंत तक पढ़ने के लिए मजबूर करती है। कहानी का अंत बच्चों में आत्ममूल्यांकन क्षमता विकसित करने में मदद करता है। जहाँ श्याम सोचता है, ’इसबार उसे लगा कि उसको साइकिल चलाना नहीं आना उसकी असल गलती नहीं थी। सिंधी के पेड़ से अमरूद चोरी करना असली गलती थी। हैंडल के बजाय पैंडल पर अटक जाना उसकी गलती थी।’ उधर गोपू की मनोदशा, ’सिंधी के अमरूद चुराना गलत तो था मगर उससे ज्यादा बुरा था श्याम को अकेला छोड़ साइकिल लेकर भाग जाना।

इन दोनों से बुरा था उस्ताद की भूमिका में असफल रहना और श्याम को पैंडल तक रोककर हैंडल का कंट्रोल अपने पास रखना।’ मनोवैज्ञानिक दृष्टि से लिखी गई यह कहानी भी पाठकों को अवश्य पसंद आएगी। रमेश कचरा’ में सफाई कर्मचारी रमेश का रेखाचित्र प्रस्तुत करता कहानीकार, झाड़ीनुमा रूखे बाल, थोड़ी बढ़ी हुई दाढ़ी आगे को निकला चेहरा, बाहर की ओर आता हुआ निचला जबड़ा। एक प्रश्नचिह्न के समान मेरुदंड, सिकुड़ी हुई छाती, आगे को झुका हुआ शरीर। एक पुरानी बुशर्ट, निक्कर और पुरानी चप्पल पहने हुए सामने दिखाई पड़ता रमेश कचरा।’ जो इस बात को ध्वनित कर रहा था, ’मानो मन में कहीं गहरी दबी हतोत्साहन की भावना, जिल्लत और उससे उपजा आक्रोश बरबस चेहरे से झलक रहा हो।’

कहानी यह भी बताती है कि यदि कोई व्यक्ति कठोर होता है तो उसके पीछे परिवार अथवा समाज द्वारा किया दुर्व्यवहार भी एक बड़ा कारण होता है। किंतु यदि उससे कोई दूसरा व्यक्ति प्रेम और अपनेपन के भाव से बात करता है तो उसका मन भी पिघलने लगता है। अत्यंत कठोर और कभी न मुस्कराने वाले रमेश से अमन जब आत्मीयता से बातकरता है तब उसमें छिपे आत्मीयता, मानवीयता और कोमलता के भाव धीरे-ंधीरे फूटने लगते हैं और ’अब जब भी अमन को ऑफिस जाते समय रमेश बिल्डिंग के बाहर दिखाई देता तो वो अमन की तरफ हाथ उठाकर मुस्करा देता।’

कहानी ’आपका क्या कहना है भाई साहब।’ लगभग सभी कहानियों में शिक्षा अप्रत्यक्ष रूप से छिपी हुई है जो साहित्य की सार्थकता को व्यक्त करती है। कहीं तो कहानीकार स्वयं शिक्षित करता है, कहीं वह घटनाओं के माध्यम से और कहीं पात्रों के आत्ममूल्यांकन द्वारा संदेश देता है। भाषा सरल और सहज है लेकिन अभिव्यक्ति अभी और कसावट की मांग करती है।

महाभारत के प्रसंग उदाहरण के रूप में कई जगह देखे जा सकते हैं, जैसे कौरवों के बीच कर्ण; मानो महाभारत में अर्जुन से अंतिम युद्ध कर रहा कर्ण हो; अर्जुन के साथ मार्गदर्शक के रूप में स्वयं केशव आदि- आदि। पहाड़ी भाषा की -झलक भी कहीं- कहीं देखने को मिलती है जैसे भतोड़ना, ठहरे आदि। जहाँ- तहाँ कहावतों का प्रयोग भी देखा जा सकता है जैसे होनहार बिरवान के होत चीकने पात, हिम्मते ए मर्दां तो मदद ए खुदा आदि। सूक्तियोंके रूप में भी कुछ विचार दर्शनीय हैं जैसे ईर्ष्या मनुष्य की बड़ी दुश्मन है; बदला लेने की भावना जब प्रबल होती है तब इंसान को कुछ नहीं सूझता आदि।

कहीं लयात्मकता से कहे गए वाक्य कहानीकार में कवित्व की संभावना ढूंढने जैसे लगते हैं। जैसे ’ठंड में काँपते हुए भोलेनाथ ही उसे एकमात्र सत्य दिखाई दिए। कड़वा सत्य, -झूठ से हारा हुआ सत्य, मनुष्य की धूल फाँकती चेतनापर आधात करता हुआ सत्य, आज की दोगली जिंदगी की निर्लज्जता पर हँसता हुआ सत्य।’ इस प्रकार मितेश्वर आनंद द्वारा रचा गया यह पहला कहानी संग्रह प्रमाण है इस बात का, लेखन मानवीय संवेदनाओं, अनुभवों और चेतना की प्राणवायु है जिसकेबिना मनुष्य होने के मायने निरर्थक हो जाएँगे।’ ’हैंडल पैंडल’ समाज के सचसे रूबरू भी कराता है, मनोरंजन भी करता है, गुदगुदाता भी है और कहीं- कहीं व्यंग्य की मार भी करता है, लेकिन कोरी कल्पना में नहीं, जीवन और कल्पना के बीच संतुलन स्थापित करता हुआ। इसके साथ ही यह भी घोषित करता है कि कहानीकार में और भी अधिक उत्कृष्ट कोटि के सृजन की संभावनाएँ छिपी हुई हैं।

 

Tirth Chetna

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