धर्म, आध्यात्म और आधुनिकता को समेटे है श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला

धर्म, आध्यात्म और आधुनिकता को समेटे है श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला
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डा. नीलम ध्यानी

श्री क्षेत्र यानि श्रीनगर गढ़वाल का बैकुंठ चतुर्दशी मेला धर्म, आध्यात्म और आधुनिकता को समेटे हुए है। समय के साथ-साथ मेला और व्यापक हुआ है। कहा जा सकता है कि मेला गढ़ संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन की दिशा में अहम भूमिका निभा रहा है।

देवभूमि उत्तराखंड विभिन्न तीज, त्योहार और पर्वों के निमित्त आयोजित होने वाले खौले, मेलों और काथिगों के पीछे तमाम परंपराएं छिपी हैं। भले ही आज मेलों में आधुनिकता का रंग ज्यादा चटक दिखता हो। मगर, इसके मूल तत्व में मान्यताओं का बसेरा है। अच्छी बात ये है कि हाल के सालों में लोग मान्यताओं पर अधिक गौर कर रहे हैं। परिणाम खौले, मेले और कौथिग और अच्छे से उभरकर सामने आ रहे हैं।

ऐसा ही कुछ है श्रीनगर का बैकुंठ चतुर्दशी मेला। ये मेला धर्म, आध्यात्म के साथ-साथ आधुनिकता को भी समेटे हुए है। ये मनोकाकमना पूर्ण करने की श्री क्षेत्र के महात्म पर आधारित है। भगवान श्री कमलेश्वर के दर पर पुत्र प्राप्ति की मनोकमाना पूर्ण होती है। हर साल हजारों लोग इस कामना की पूर्ति के लिए यहां पहुंचते हैं।

दीपावली से करीब दो सप्ताह बाद इस मेले की तिथि आती है। इस दिन कमलेश्वर मंदिर में पूजा, अर्चना, जल अर्पण का खास महत्व है। स्थानीय लोग घरों में घी से बनी 365 बत्तियां मंदिर में चढ़ाते हैं। इन बत्तियों को चतुर्दशी की पूरी रात को उपयोग में लाया जाता है। इसे बड़ा पुण्य का काम माना जाता है और लोग इसे उत्साह के साथ करते हैं।

बैकुंट चतुर्दशी को लेकर तमाम किवदंती भी हैं। कहा जाता है कि शिवालय में भगवान विष्णु ने तपस्या कर सुदर्शन-चक्र प्राप्त किया तो श्री राम ने रावण वध के उपरान्त ब्रह्म हत्या के पाप से मुक्ति हेतु कामना अर्पण कर शिव जी को प्रसन्न किया व पापमुक्त हुए।

बताया जाता है कि तभी से वैकुण्ठ चतुर्दशी कार्तिक मास शुक्ल पक्ष की चौदवीं तिथि को भगवान विष्णु को सुदर्शन चक्र प्राप्ति का पर्व माना गया है। निसंतान दंपति पुत्र प्राप्ति की कामना के लिए यहां रात्रि में साधना करने हेतु मन्दिर में आते हैं। लोगों की कामना भी पूरी होती है।

इन मान्यताओं के इत्तर अब वैकुण्ठ चतुर्दशी मेला धर्म, आध्यात्म के साथ-साथ आधुनिकता को भी अच्छे से समेट चुका है। परंपरओं और मान्यताओं के साथ आधुनिकता ने भी साम्य स्थापित कर दिया है। शिक्षा की नगरी श्रीनगर के इस मेले को व्यापकता भी प्राप्त हुई है।

श्री बैकुंठ चतुर्दशी मेला अब पर्वतीय अंचल की संस्कृति के संरक्षण और संवर्द्धन की दिशा में भी अहम भूमिका निभा रहा है। अच्छी बात ये है कि मेले के माध्यम से युवा स्वयं को परंपराओं से संबद्ध कर रहे हैं। इसे धर्म, आध्यात्मा और मान्यताओं के संरक्षित रहने की गारंटी कहा जा सकता है।

Tirth Chetna

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