नए मेडिकल कॉलेजों का विरोध क्यों
डा. सुशील उपाध्याय
इन दिनों डॉक्टरों के समूहों द्वारा एक मैसेज प्रसारित किया जा रहा है। इस मैसेज का भाव ये है कि इस वक्त देश को नए मेडिकल कॉलेजों या अधिक डॉक्टरों की बजाय विशेषज्ञ डॉक्टरों की जरूरत है। यह मैसेज मूल रूप में इस प्रकार है-
पिछले दिनों प्रधानमंत्री जी ने देश में अधिक से अधिक मेडिकल कॉलेज़ खोलने का आह्वान राज्य सरकारों और औद्योगिक घरानों से किया है। जब देश के प्रधानमंत्री ने कहा है तो स्वाभाविक है आने वाले वर्षों में निजी और सरकारी मेडिकल कॉलेजों की सुनामी आने वाली है।
राज्य सरकार तो पहले ही अपने ज़िला अस्पतालों को मेडिकल कॉलेज में अपग्रेड कर रही है। उधर, एनएमसी (एमसीआई) ने एनईएक्सटी परीक्षा की घोषणा कर दी है, जिसे पास करना प्रत्येक एमबीबीएस ग्रेजुएट के लिए आवश्यक होगा (होना भी चाहिए) तभी वो प्रैक्टिस कर पाएगा।“देश की स्वास्थ्य व्यवस्था को और बेहतर बनाने के लिए हमें और डॉक्टर चाहिए”, ये एक नैरटिव है, जिसे दशकों से प्रचारित किया गया और दुर्भाग्यवश अब भी किया जा रहा है, जबकि वर्ष 2021 में संसद में सरकार ने स्वयं कहा है कि देश में 854 लोगों पर एक डॉक्टर उपलब्ध है जो कि डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारित मानक से बेहतर हो चुका है।
अब देश के नीति निर्माताओं से कुछ सवाल हैं, जिनका जवाब दिया जाना चाहिएजब देश में डॉक्टरों की संख्या डब्ल्यूएचओ द्वारा रेकमेंडेड संख्या से बेहतर हो चुकी है तो हमें अब और मेडिकल कॉलेज क्यों चाहिए ।
क्या इन भावी चिकित्सकों के रोज़गार के लिए भी कोई योजना बनाई गई है या सिर्फ़ निजी मेडिकल कॉलेजों को पोषित करने के लिए और बड़े अस्पतालों को सस्ते डॉक्टर उपलब्ध करवाने के लिए डाक्टरों की फ़ौज बनाई जा रही है ?
गली-गली में मेडिकल कॉलेज खुलने के बाद बहुत सम्भव है कि एनईएक्सटी के परिणाम भी एफएमजीई जैसे ही होंगे। यदि ऐसा हुआ तो एनईएक्सटी अनुत्तीर्ण छात्रों का भविष्य क्या होगा ?
विदेशी विश्वविद्यालयों पर तो सरकार का कोई नियंत्रण नहीं है, लेकिन भारत के किसी मेडिकल कॉलेज में पाँच साल पढ़ाई करने के बाद यदि छात्र एनईएक्सटी परीक्षा पास न कर पाए तो क्या मेडिकल कॉलेज की कोई जवाबदेही तय होगी?
आवश्यकता से अधिक बेरोज़गार चिकित्सकों की फ़ौज खड़ा करने से बेहतर होगा कि मौजूदा मेडिकल कॉलेजों में पढ़ाई की गुणवत्ता सुधारी जाए ताकि न केवल देश को अच्छे चिकित्सक मिलें, बल्कि किसी युवा को उस घोर मानसिक यंत्रणा से न गुजरना पड़े जो एफएमजीई पास न कर पाने पर होती होगी ।
और अब इस झूठ का प्रचार भी बंद होना चाहिए कि देश में चिकित्सकों की कमी है। ‘‘ डॉक्टरों द्वारा प्रचारित उपर्युक्त मैसेज में इसमें स्पष्ट रूप से कहा गया है कि देश में और डॉक्टरों की जरूरत नहीं है। इस बात को जब शहरों के संदर्भ में प्राइवेट डॉक्टरों को देखते हैं तो फिर यकीनन देश को अतिरिक्त डॉक्टरों की जरूरत नहीं है। लेकिन, भारत केवल शहरों में नहीं हैं। देश की दो तिहाई आबादी अब भी गांवों में रह रही है जो मेडिकल सुविधाओं के मामले में पूरी तरह शहरों पर निर्भर है। शहरों में प्राइवेट मेडिकल सुविधाएं कितनी डरावनी कीमत पर उपलब्ध हैं, ये सभी को पता है। बात साफ है कि देश को शहर केंद्रित प्राइवेट मेडिकल सुविधाओं के साथ उन मेडिकल सुविधाओं की जरूरत है जो गांवों में हों या फिर सरकारी अस्पतालों में हैं।
उत्तराखंड को उदाहरण के तौर पर देखिए। सरकार की तमाम कोशिश के बावजूद डॉक्टरों के एक तिहाई पद नहीं भरे जा पा रहे हैं। सरकारी अस्पतालों में जो डॉक्टर हैं, वे भी केवल सुविधाजनक स्थानों पर ही हैं, दूरस्थ इलाकों में तो दो तिहाई से ज्यादा पद खाली हैं। अब सवाल ये है कि इन जगहों पर कौन डॉक्टर काम करने जाएगा ? प्राइवेट मेडिकल कॉलेज में भारी-भरकम फीस देकर एमबीबीएस करने वाला युवा डॉक्टर इन गांवों में नहीं जाएगा।
इनके लिए उसी प्रकार का समानांतर तंत्र विकसित करने की जरूरत है, जिसकी पहल कुछ साल पहले छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री अजित जोगी ने की थी। (हालांकि, मैं निजी तौर पर साढ़े तीन वाली मेडिकल डिग्री पर सहमत नहीं हूं। डिग्री का स्वरूप वही रहे जो एमसीआई ने तय किया है, लेकिन सरकारी खर्च पर सरकारी मेडिकल कॉलेजों में पढ़े डॉक्टरों को ग्रामीण क्षेत्रों में सेवा के लिए भेजा जाना जरूरी हो।) गांवों में और सरकारी अस्पतालों में डॉक्टरों की कमी को देखिए तो साफ पता चलेगा कि मौजूदा मेडिकल कॉलेजों और उनमें उपलब्ध सीटों को तत्काल दोगुना करने की जरूरत है।
विशेषज्ञता की जरूरत हमेशा ही रहती है, लेकिन जहां सामान्य एमबीबीएस डॉक्टर से काम चल सकता हो, वहां जबरन विशेषज्ञ का सवाल उठाना बेमानी है। डॉक्टरों द्वारा फैलाये जा रहे मैसेज में बताया गया है कि देश में डॉक्टरों का औसत डब्ल्यूएचओ द्वारा निर्धारण मानक से अधिक है। वस्तुतः औसत वाला ये मामला बड़ा चिंताजनक है। इससे वस्तुस्थिति का पता नहीं चलता। और यदि औसत की ही बात है तो नार्वे और न्यूजीलैंड के औसत की बात भी कीजिए। या फिर चीन से तुलना कर लीजिए तो पता चलेगा कि भारत का औसत बहुत खराब है। देश में डॉक्टरों की कमी है तभी तो झोलाछाप लोग अपनी दुकानें चला रहे हैं। नए मेडिकल कॉलेज खोलकर निजी अस्पतालों को सस्ते डॉक्टर उपलब्ध कराने का तर्क पूरी तरह गलत है और इस तर्क की आड़ में सरकारी अस्पतालों को खाली रखने की मंशा भी झलकती है।
जहां तक विदेश जाकर मेडिकल की पढ़ाई करने की बात है तो यह सीधे तौर पर भारत सरकार की विफलता है। इस विफलता में एमसीआई और डॉक्टरों के प्रभावशाली समूह भी बराबर के हिस्सेदार हैं। मौजूदा डॉक्टरों द्वारा यह बात कहा जाना कि और डॉक्टरों की जरूरत नहीं है, से यही पता चलता है कि प्राइवेट मेडिकल क्षेत्र अपने लाभ को सामने रखकर बात कर रहा है। डॉक्टरों की फौज कोई बुरी बात नहीं है। इससे आम लोगों को सस्ती मेडिकल सुविधा मिलने की संभावना पैदा होगी। कम से कम सरकारी क्षेत्र को आसानी से डॉक्टर मिल सकेंगे। और यदि भारत में खपत नहीं हो सकेगी तो दुनिया के उन देशों में काम के मौके मिल सकेंगे, जहां डॉक्टरों की कमी है। आखिर, इंग्लैंड जैसे देशों की नेशकल मेडिकल सर्विस भारतीय डॉक्टरों के दम पर ही चलती है।
ये भी कहा जा रहा है कि विदेश से पढ़ने वाले डॉक्टर योग्य नहीं हैं। इस पर तर्क दिया जा रहा है कि इनमें से बमुश्किल 20 फीसद डॉक्टर ही एफएमजीई की परीक्षा पास कर पा रहे हैं। लेकिन, यह बात केवल मेडिकल तक सीमित नहीं है। यूजीसी, सीएसआईआर, आईसीएआर आदि द्वारा ली जाने वाली नेट परीक्षा में भी सफलता का औसत 15 प्रतिशत से कम ही रहता है। यही स्थिति बार कौंसिल ऑफ इंडिया की परीक्षाआें से भी जुड़ी है। अब अच्छी बात यह है कि भारत सरकार ने भी सभी एमबीबीएस के लिए एनईएक्सटी परीक्षा पास करना अनिवार्य कर दिया है। आप देखिएगा कि इस परीक्षा का रिजल्ट भी 15-20 फीसद के बीच ही रहेगा। ऐसे हालात में तो भारत को और ज्यादा मेडिकल ग्रेजुएट्स की जरूरत होगी। ये विषय काफी उलझा हुआ है, लेकिन यूक्रेन के मामले ने ये साबित किया है कि भारत को न केवल अपनी मेडिकल सुविधाओं, बल्कि मेडिकल एजुकेशन के विस्तार पर तत्काल ध्यान देने की जरूरत है।
लेखक उच्च शिक्षा में प्राध्यापक हैं।